एक समय था जब एटलस साइकिल 50 से भी ज्यादा देशों में अपनी पहचान बना चुकी थी। यह कंपनी हर साल 4 मिलियन साइकिल्स प्रोड्यूस करती थी और भारत ही नहीं, दुनिया में भी साइकिल इंडस्ट्री की शान थी। लेकिन समय ने ऐसी करवट ली कि एक-एक करके इसके सभी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स बंद हो गए।
लॉकडाउन के बाद जब कर्मचारी काम पर लौटे, तो उन्हें फैक्ट्री में घुसने तक नहीं दिया गया। गेट पर एक नोटिस ने उन्हें बताया कि वे अब इस कंपनी का हिस्सा नहीं हैं क्योंकि कंपनी के पास उन्हें सैलरी देने तक के पैसे नहीं बचे थे। आखिर कैसे इतनी बड़ी कंपनी इस हाल तक पहुंच गई? आइए विस्तार से समझते हैं।
एटलस साइकिल का सुनहरा दौर
1951 में जानकी दास कपूर ने एटलस साइकिल की शुरुआत की। यह वह दौर था जब भारत में साइकिल को विदेशों से इंपोर्ट किया जाता था, और उनका दाम इतना ज्यादा होता था कि आम आदमी इसे खरीदने में असमर्थ था। इस कमी को समझते हुए, जानकी दास कपूर ने भारतीयों के लिए किफायती और मजबूत साइकिल बनाने का सपना देखा।
पहले साल में ही एटलस ने 12,000 साइकिल्स का उत्पादन किया। 1958 में कंपनी ने मिडिल ईस्ट और अफ्रीका जैसे देशों में अपने साइकिल्स एक्सपोर्ट करने शुरू कर दिए। इसके बाद 1961 तक यह कंपनी 10 लाख से ज्यादा साइकिल्स प्रोड्यूस कर रही थी।
एटलस का मार्केटिंग तरीका भी अनोखा था। इसने महिलाओं को टारगेट करते हुए खास साइकिल्स बनाई, जिन्हें पारंपरिक ड्रेस पहनकर भी चलाया जा सकता था। इस कदम ने समाज में जेंडर स्टीरियोटाइप्स को तोड़ा।
ग्लोबल लीडर बनने की यात्रा
1982 में दिल्ली में आयोजित एशियन गेम्स के लिए एटलस ने रेसिंग साइकिल्स सप्लाई कीं। इससे कंपनी की इंटरनेशनल पहचान और मजबूत हुई। 2014 तक एटलस 50 देशों में साइकिल्स एक्सपोर्ट कर रहा था। भारत में इसके 4,000 से ज्यादा डीलर्स थे।
कंपनी को कई प्रतिष्ठित अवार्ड्स भी मिले, जैसे इटली का गोल्ड मरकरी इंटरनेशनल अवार्ड, बेस्ट इंडस्ट्रियल रिलेशन के लिए एफआईसीसीआई अवार्ड और एक्सपोर्ट के लिए ईईपीसी अवार्ड।
बर्बादी की शुरुआत
1999 में कंपनी को तीन हिस्सों में बांटा गया। यह कदम भविष्य के लिए घातक साबित हुआ। इसके बाद पारिवारिक विवाद बढ़ते गए। अरुण कपूर पर 2001 में 10.45 करोड़ रुपये की हेराफेरी का आरोप लगा, जिससे विवाद और गहराता गया।
इसके अलावा, एटलस नई टेक्नोलॉजी और मार्केट ट्रेंड्स को अपनाने में असफल रही। जब बाजार में बाइक्स की मांग बढ़ रही थी, एटलस ने इसे नजरअंदाज कर दिया। दूसरी ओर, हीरो साइकिल्स जैसे प्रतिस्पर्धी तेजी से आगे बढ़ते गए।
गिरावट के मुख्य कारण
- पारिवारिक विवाद: तीन हिस्सों में बंटने के बाद, कंपनी के मालिक आपसी झगड़ों में उलझे रहे, जिससे कंपनी की प्रगति पर असर पड़ा।
- मार्केट ट्रेंड्स का नजरअंदाज करना: 1980 के दशक में जब टू-व्हीलर्स की डिमांड बढ़ रही थी, एटलस ने अपनी रणनीति नहीं बदली।
- आरएंडडी पर कम निवेश: नई टेक्नोलॉजी अपनाने और प्रोडक्ट्स को अपग्रेड करने में एटलस ने देरी की।
क्या एटलस का सफर यहीं खत्म हुआ?
फैक्ट्रियां बंद होने के बावजूद, आज भी एटलस की साइकिल्स बाजार में बिक रही हैं। दरअसल, कुछ छोटे मैन्युफैक्चरर्स एटलस ब्रांड के तहत साइकिल्स बना रहे हैं। लेकिन यह ब्रांड अपने पुराने गौरव को हासिल कर पाएगा, यह कहना मुश्किल है।
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निष्कर्ष
एटलस साइकिल्स की कहानी एक सबक है कि समय के साथ चलना कितना जरूरी है। जहां एक समय यह कंपनी भारतीय साइकिल इंडस्ट्री का प्रतीक थी, वहीं आज इसका नाम इतिहास के पन्नों में सिमटने लगा है। बदलाव को अपनाने और प्रबंधन में सामंजस्य बनाए रखने की अहमियत एटलस की यात्रा से साफ झलकती है।
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