Dabur: ₹90 से ₹90,000 करोड़ तक का सफर | Dabur vs Patanjali

डाबर – एक ऐसा नाम जिसे हर भारतीय जानता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब एस.के. बर्मन ने इस ब्रांड की शुरुआत की थी, तब लोग उन्हें “फर्जी वैद्य” कहते थे? वजह ये थी कि उनकी बनाई आयुर्वेदिक दवाइयाँ इतनी असरदार थीं कि लोगों को उन पर यकीन ही नहीं होता था! डाबर की कहानी सिर्फ सफलता (Success) की नहीं है, बल्कि संघर्ष (Struggle) की भी है। इस ब्रांड ने कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन फिर भी आयुर्वेद के क्षेत्र में अपनी जगह बनाई।

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कैसे मजबूरन कंपनी को कोलकाता छोड़ना पड़ा? क्यों एक ही रात में फैमिली के 8 मेंबर्स ने रिजाइन दे दिया? और कैसे डाबर ने एक ऐसा मास्टरस्ट्रोक मारा कि पतंजलि को उसी के गेम में हरा दिया? आइए इस पूरी कहानी को विस्तार से समझते हैं।


डाबर की शुरुआत – एक गरीब लड़के की मेहनत और संघर्ष

एस.के. बर्मन का जन्म 1856 में हुआ था। उस दौर में गांवों में बीमारियों का इलाज हर्बल औषधियों, झाड़-फूंक और टोटकों से किया जाता था। अंग्रेजी दवाइयाँ भी थीं, लेकिन इतनी महंगी कि केवल अमीर लोग ही उन्हें खरीद सकते थे। इस दौरान हैजा, मलेरिया और प्लेग जैसी बीमारियाँ लोगों की जान ले रही थीं। ऐसे में एस.के. बर्मन ने सोचा कि अगर आयुर्वेद को वैज्ञानिक तरीके से विकसित किया जाए, तो आम लोगों तक सस्ती और असरदार दवाइयाँ पहुँचाई जा सकती हैं।

लेकिन गरीबी उनके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा थी। उनके पास किताबें खरीदने तक के पैसे नहीं थे। उन्होंने छोटे-मोटे काम किए, उधार लिया, लेकिन हार नहीं मानी। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे अलग-अलग गांवों में घूम-घूमकर आयुर्वेदिक औषधियों पर रिसर्च करने लगे।

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डाबर की पहली दवाइयाँ और ‘फर्जी वैद्य’ का टैग

एस.के. बर्मन ने अपने घर के एक छोटे से कमरे को लेबोरेटरी बना दिया। उन्होंने खुद अपने हाथों से दवाइयाँ तैयार कीं और साइकिल से गांव-गांव जाकर उन्हें लोगों तक पहुँचाया। उन्होंने सबसे पहले मलेरिया और पाचन (डाइजेशन) से जुड़ी दवाइयाँ बनाई। ये दवाइयाँ असरदार और सस्ती थीं, लेकिन कुछ लोग इतने गरीब थे कि इन्हें भी नहीं खरीद सकते थे। ऐसे में बर्मन जी ने उन्हें फ्री में दवाइयाँ देना शुरू कर दिया।

उनकी दवाइयाँ इतनी जल्दी असर दिखाती थीं कि लोग उन्हें “फर्जी वैद्य” कहने लगे। उन्हें शक था कि या तो ये जादू-टोने से बनी हैं या इनमें कोई हानिकारक पदार्थ मिलाया गया है! लेकिन धीरे-धीरे लोगों का भरोसा बढ़ा और डाबर एक ट्रस्टेड ब्रांड बन गया।


डाबर का पहला बड़ा कदम – फैक्ट्री और च्यवनप्राश की एंट्री

एस.के. बर्मन के काम को देखते हुए उनकी दवाइयों की माँग बढ़ने लगी। अब वे अकेले इतनी दवाइयाँ नहीं बना सकते थे। इसी वजह से उन्होंने भारत का पहला आयुर्वेदिक मैन्युफैक्चरिंग प्लांट खोला।

1949 – च्यवनप्राश की एंट्री

डाबर की किस्मत तब बदली जब उन्होंने 1949 में च्यवनप्राश लॉन्च किया। च्यवनप्राश कोई नया प्रोडक्ट नहीं था। इसके बारे में कहा जाता है कि महर्षि च्यवन ने खुद को युवा और स्वस्थ बनाए रखने के लिए एक खास हर्बल मिश्रण तैयार किया था।

डाबर ने इस प्राचीन फार्मूले को मॉडर्न पैकेजिंग और ब्रांडिंग के साथ बाजार में उतारा। कंपनी ने यह प्रचार किया कि अगर रोजाना च्यवनप्राश खाओगे, तो बीमारियाँ पास भी नहीं आएँगी! इस मार्केटिंग स्ट्रेटेजी ने कमाल कर दिया! स्कूल जाने वाले बच्चे, ऑफिस जाने वाले युवा और बुजुर्ग – सभी ने च्यवनप्राश खाना शुरू कर दिया।


डाबर की मुश्किलें – पश्चिम बंगाल से पलायन और नया बिजनेस मॉडल

1950 तक आते-आते भारत में एलोपैथिक दवाइयाँ तेजी से पॉपुलर होने लगीं। लोग आयुर्वेद को पुराना और आउटडेटेड मानने लगे। कई छोटी आयुर्वेदिक कंपनियाँ मार्केट से गायब हो गईं। डाबर को एहसास हुआ कि अगर उन्होंने कुछ नया नहीं किया, तो आयुर्वेद खत्म हो सकता है। इसी वजह से उन्होंने अपने प्रोडक्ट्स को वैज्ञानिक तरीके से प्रमाणित (Scientific Validation) करने की रणनीति अपनाई।

लेकिन इससे पहले कि वे अपने इस प्लान को पूरा कर पाते, 1960 के दशक के अंत में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक अशांति शुरू हो गई। मजदूरों की हड़ताल, किडनैपिंग और बिजनेसमैन पर हमले बढ़ने लगे। स्थिति इतनी खराब हो गई कि डाबर को मजबूरी में कोलकाता छोड़कर दिल्ली शिफ्ट होना पड़ा।


डाबर का सबसे बड़ा दांव – पतंजलि को उसी के गेम में हराया!

डाबर हमेशा से एक पारंपरिक ब्रांड रहा, लेकिन 2000 के दशक में पतंजलि के आने से उसे तगड़ा झटका लगा। बाबा रामदेव के ब्रांड ने आयुर्वेदिक मार्केट में “स्वदेशी” और “शुद्धता” की टैगलाइन के साथ एंट्री ली और लोगों का ध्यान खींचा। पतंजलि के बढ़ते प्रभुत्व को देखकर डाबर ने अपनी मार्केटिंग और प्रोडक्ट्स को मॉडर्न टच दिया। उन्होंने अपने हनी, च्यवनप्राश, टूथपेस्ट और हेल्थकेयर प्रोडक्ट्स को वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ बेचना शुरू किया।

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निष्कर्ष – डाबर आज कहाँ है?

138 सालों में डाबर ने छोटे कमरे से लेकर ₹90,000 करोड़ की कंपनी बनने तक का सफर तय किया है। आज यह भारत ही नहीं, 70 से ज्यादा देशों में अपने प्रोडक्ट्स बेच रही है। डाबर की यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची मेहनत और सही रणनीति से कोई भी बिजनेस बड़ा बन सकता है।

  • दवाइयाँ, स्किन केयर, हेल्थ सप्लिमेंट, टूथपेस्ट और हर्बल प्रोडक्ट्स – डाबर हर कैटेगरी में मौजूद है।
  • डाबर हनी, डाबर च्यवनप्राश, डाबर लाल दंत मंजन – आज भी लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं।

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