क्यों नफरत हो रही है हिंदी से? – एक गहराई से समझाया गया लेख

आज भारत में एक ऐसा सवाल खड़ा हो गया है जो सिर्फ भाषा का नहीं, बल्कि पहचान, राजनीति और समाज की सोच का भी है। हम बात कर रहे हैं हिंदी बनाम मराठी या कहें हिंदी बनाम क्षेत्रीय भाषाओं की। यह बहस सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे कर्नाटक जैसे राज्यों में भी फैल रही है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है – क्या हिंदी अब एक बोझ बन गई है? और अगर हाँ, तो क्यों?

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मराठी बोलो वरना पिज़्ज़ा नहीं मिलेगा!

कुछ समय पहले महाराष्ट्र के कई शहरों – मुंबई, पुणे, ठाणे – में एक अजीब सा माहौल देखने को मिला। डिलीवरी बॉय से लेकर ऑटो वाले तक, होटल स्टाफ से लेकर सड़क पर चलते आम इंसान तक, सबको मराठी बोलने का ‘आदेश’ दिया जा रहा है। कोई कह रहा है, “मराठी नहीं तो चाय नहीं”, कोई कह रहा है, “मराठी बोलो वरना पैसा नहीं मिलेगा।”

लेकिन जैसे ही कोई अंग्रेजी में बात करता है, माहौल पूरी तरह बदल जाता है – “Yes Sir, Welcome Sir, No Problem Sir!” अब यही सवाल खड़ा करता है – अगर आप हिंदी पर गुस्सा निकाल रहे हैं तो अंग्रेज़ी पर क्यों नहीं? क्या अंग्रेज़ी बाप और हिंदी पाप हो गई है?


हिंदी और मराठी का रिश्ता – इतिहास में झांके

मराठी और हिंदी का रिश्ता कोई नया नहीं है। दोनों भाषाएं वर्षों से साथ चल रही हैं। मराठी साहित्य ने हिंदी को गहराई दी, और बॉलीवुड – जो मुंबई का ही हिस्सा है – उसने मराठी संस्कृति को दुनिया तक पहुँचाया। दोनों भाषाएं हमेशा एक-दूसरे को सहारा देती रही हैं।

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फिर यह टकराव क्यों?


राजनीति की चाल – कैसे भाषा को बना दिया गया हथियार

इस विवाद के पीछे अगर कोई सबसे बड़ा कारण है तो वह है राजनीति। जब किसी नेता को मुद्दा नहीं मिलता, तो वह जाति, धर्म या भाषा को मुद्दा बना देता है। यही महाराष्ट्र में भी हुआ।

राज ठाकरे, जो कभी शिवसेना के जाने-माने नेता थे, अब मनसे पार्टी में हैं। उनकी राजनीतिक पकड़ अब कमजोर हो चुकी है। और जब भी उन्हें राजनीति में वापसी करनी होती है, वो एक ही नारा लगाते हैं – “हिंदी भाषियों को भगाओ।”


एक डिलीवरी बॉय की कहानी – सम्मान या अपमान?

12 मई 2025 को एक डिलीवरी बॉय एक घर पर पिज़्ज़ा देने गया। लेकिन पैसे देने के लिए कपल ने कहा – “पहले मराठी बोलो।” लड़का विनती करता रहा, “मुझे मराठी नहीं आती, पिज़्ज़ा दे दिया, पैसे दे दीजिए।” लेकिन उन्हें उसकी भाषा से नहीं, सिर्फ मराठी से मतलब था।

जब लड़के ने वीडियो बनाया और इंटरनेट पर डाला, तब लोगों को पता चला कि कैसे भाषा के नाम पर ज़िल्लत दी जा रही है। कई लोग बोले – “मराठी हमारी शान है”, तो कुछ बोले – “गरीब डिलीवरी बॉय से गुंडागर्दी क्यों?”


यह सिर्फ एक मामला नहीं है

ठाणे में एक ऑटो वाला हिंदी बोलने पर सवारी को गाड़ी से उतार देता है, बिहार का एक लड़का बताता है कि उसे दुकान पर मराठी नहीं बोलने की वजह से निकाला गया। एक महिला को सामान नहीं दिया गया क्योंकि वो मराठी में बात नहीं कर पा रही थी।

क्या ये भाषा का प्रेम है? या हिंदी से डराने का नया तरीका?


सरकार का फैसला और राजनीति का रंग

महाराष्ट्र सरकार ने स्कूलों में हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में जरूरी किया। इसके खिलाफ राज ठाकरे खड़े हो गए। उन्होंने कहा – “हम हिंदू हैं लेकिन हिंदी नहीं!” फिर मनसे कार्यकर्ताओं ने हिंदी बोलने वालों को धमकाया, पीटा, अपमानित किया।

लेकिन सोचिए – क्या यही तरीका है भाषा सिखाने का?


हिंदी सिर्फ यूपी-बिहार की नहीं है

यह कहना कि हिंदी सिर्फ यूपी-बिहार वालों की भाषा है, गलत है। हिंदी देश के करोड़ों लोगों को जोड़ती है – कश्मीर से कन्याकुमारी तक। मराठी और कन्नड़ जैसे क्षेत्रीय भाषाओं को बोलने वाले अगर यह महसूस कर रहे हैं कि उनकी पहचान दब रही है, तो उनकी भावना समझी जा सकती है।

लेकिन सवाल यह भी है – अगर किसी भाषा को थोपना गलत है, तो फिर आप भी अपनी भाषा किसी और पर क्यों थोप रहे हैं?


अमीरों पर नहीं, गरीबों पर ताकत क्यों?

राज ठाकरे को अगर इतना ही विरोध है हिंदी भाषियों से, तो फिर बॉलीवुड क्यों नहीं बंद करवाते? शाहरुख, सलमान, आमिर, अमिताभ जैसे स्टार्स भी हिंदी बोलते हैं। लेकिन उन्हें कुछ नहीं कहा जाता, क्योंकि वहां पैसा और पावर है। हमला होता है सिर्फ गरीब मज़दूरों पर, जो काम की तलाश में मुंबई आते हैं।

क्यों? क्योंकि गरीब पर ज़ोर दिखाना आसान होता है।


ये सिर्फ महाराष्ट्र की कहानी नहीं है

कर्नाटक में भी ऐसी ही घटनाएं सामने आ चुकी हैं। बेंगलुरु मेट्रो में एक महिला को हिंदी बोलने पर चिल्लाया गया। हिंदी साइनबोर्ड तोड़े गए। दुकानों पर सिर्फ कन्नड़ में पोस्टर लगाए गए।

यानि यह बहस अब एक राज्य की नहीं रही – यह बहस अब भाषा की पहचान बनाम इंसान की गरिमा की हो चुकी है।


निष्कर्ष – भाषा जोड़ती है, तोड़ती नहीं

हर इंसान को अपनी भाषा से प्रेम करना चाहिए। लेकिन उस प्रेम में घृणा का ज़हर नहीं होना चाहिए। अगर आपको लगता है कि आपकी भाषा दब रही है, तो उसे बढ़ाने के लिए मेहनत कीजिए, लेकिन दूसरों को नीचा दिखाकर नहीं।

भाषा जोड़ने का काम करती है, राजनीति अगर इसे तोड़ने का हथियार बना रही है, तो इसका विरोध होना चाहिए – वो भी समझदारी से।


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