1922 में एक 23 साल का लड़का शिमला के सिसिल होटल के सामने खड़ा था, उसका सपना था कि वह यहाँ एक क्लर्क की नौकरी हासिल करे। लेकिन होटल के गार्ड ने उसकी अपीयरेंस को देखकर उसे अंदर जाने से रोक दिया। उस समय किसी ने भी नहीं सोचा था कि यही लड़का न केवल उस होटल का मालिक बनेगा, बल्कि पूरे भारत में लग्जरी होटल चेन का निर्माण करेगा। यह कहानी है मोहन सिंह ओबेरॉय की, जिन्होंने अपनी मेहनत और दृढ़ता से ओबेरॉय होटल्स को दुनिया भर में पहचान दिलाई।
शुरुआत और संघर्ष
मोहन सिंह ओबेरॉय का जन्म 1898 में हुआ था। जब वे केवल छह महीने के थे, तब एक महामारी में उन्होंने अपने पिता को खो दिया। इसके बाद उनकी माँ ने उनकी शिक्षा पर ध्यान दिया और 16 साल की उम्र में मोहन ने लाहौर में डीएवी कॉलेज में दाखिला लिया। यहीं से उनकी ज़िंदगी में दो महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं – उन्होंने इंग्लिश बोलने में दक्षता हासिल की और एक शू फैक्ट्री में पार्ट-टाइम जॉब शुरू की। उन्होंने जल्द ही प्रोडक्शन और डिजाइनिंग की प्रक्रिया को समझा और एक सामान्य श्रमिक से सुपरवाइजर बन गए।
महत्वपूर्ण मोड़
1919 में ब्रिटिश शासन द्वारा लागू किए गए रोलेट एक्ट के खिलाफ विरोध शुरू हो गया, जिसका असर मोहन की शू फैक्ट्री पर पड़ा और कुछ सालों के संघर्ष के बाद फैक्ट्री बंद हो गई। अब मोहन बेरोजगार थे, और इस कठिन समय में उनका परिवार बढ़ चुका था। यह समय उनके जीवन में बड़ा मोड़ लेकर आया, जब वे शिमला पहुंचे और वहां उन्हें एक नई शुरुआत मिली। शिमला, उस समय ब्रिटिश इंडिया की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी, जहां उच्च पदस्थ अधिकारियों और पर्यटकों का आना-जाना रहता था।
सिसिल होटल में प्रवेश
शिमला में अपने पहले इंटरव्यू में असफल होने के बाद मोहन सिसिल होटल पहुंचे। होटल के गार्ड ने उन्हें उनके रूप-रंग के कारण अंदर जाने से मना कर दिया। लेकिन मोहन ने हार मानने की बजाय होटल के बाहर इंतजार किया और होटल के मैनेजर से मुलाकात की। उन्होंने बड़े आत्मविश्वास के साथ मैनेजर से पूछा कि क्या होटल में कोई नौकरी उपलब्ध है। मैनेजर उनकी इंग्लिश सुनकर प्रभावित हुए और अगले दिन उन्हें 50 रुपये प्रति माह की सैलरी पर क्लर्क की नौकरी दे दी।
सफलता की ओर कदम
सिसिल होटल में मोहन की जिम्मेदारी कोल की सप्लाई और स्टॉक को मैनेज करना थी। उन्होंने कोल डस्ट बॉल्स का विचार दिया, जो सस्ती होने के साथ-साथ लंबे समय तक जल सकती थीं, जिससे होटल को लागत में बचत होती थी। इसके अलावा, मोहन ने टाइपिंग और शॉर्ट हैंड राइटिंग में भी दक्षता हासिल की और होटल के डॉक्युमेंटेशन का काम भी किया। इसके बाद, उन्हें प्रमोट कर गेस्ट क्लर्क बना दिया गया और उनकी सैलरी भी बढ़ा दी गई।
क्लार्क्स होटल और संघर्ष
कुछ सालों बाद, सिसिल होटल के मैनेजर ने अपना खुद का होटल खरीदने का फैसला किया और मोहन को होटल में पार्टनर बनने का अवसर दिया। इस साझेदारी में मोहन ने होटल का पूर्ण रूप से कायाकल्प किया। उन्होंने होटल के बार को अपग्रेड किया, ब्रिटिश अधिकारियों से व्यक्तिगत संबंध बनाए और उच्च गुणवत्ता की सेवाएं प्रदान की। उनकी मेहनत के चलते होटल की ऑक्युपेंसी दोगुनी हो गई। लेकिन अचानक, होटल के मालिक की पत्नी बीमार हो गई और होटल को बेचने का निर्णय लिया गया। मोहन ने अपनी पत्नी के गहनों को बेचकर होटल को खरीदने की कोशिश की और अंततः कर्ज लेकर होटल का मालिक बन गए।
ग्रैंड होटल का कायाकल्प
अब मोहन का लक्ष्य केवल एक छोटे होटल तक सीमित नहीं था। उन्होंने बड़े होटल के निर्माण का सपना देखा और 1937 में कलका में द ग्रैंड होटल को लीज पर लिया। इस होटल की हालत खराब थी, लेकिन मोहन ने अपनी मेहनत और दृढ़ता से उसे पुनः जीवित किया। उन्होंने होटल की पुरानी संरचना को न केवल सजाया बल्कि उसकी गुणवत्ता में भी सुधार किया। उन्होंने नए प्लंबिंग सिस्टम और सफाई व्यवस्था लागू की, जिससे होटल की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया।
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निष्कर्ष
मोहन सिंह ओबेरॉय की कहानी यह दर्शाती है कि कठिनाइयों और संघर्षों के बावजूद, अगर इंसान में आत्मविश्वास, मेहनत और सही दिशा में प्रयास करने की क्षमता हो, तो वह किसी भी मुकाम को हासिल कर सकता है। आज ओबेरॉय होटल्स एक प्रतिष्ठित और सम्मानित होटल चेन बन चुका है, जो मोहन सिंह ओबेरॉय की कड़ी मेहनत और दृढ़ संकल्प का प्रतीक है।
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