भारत में दक्षिण और उत्तर भारत के बीच भेदभाव: क्या है असली वजह?

भारत में विकास की दर, टैक्स रिटर्न और संसाधनों के वितरण को लेकर अक्सर दक्षिण और उत्तर भारत के बीच भेदभाव की बात की जाती है। तमिलनाडु की एमपी कन्नीमोदी करुणा निधि ने लोकसभा में बजट 2022 पर बात करते हुए सवाल उठाया कि सरकार ने उत्तर रेलवे को 13,200 करोड़ रुपये दिए, जबकि दक्षिण रेलवे को केवल 59 करोड़ रुपये दिए गए। यह अंतर बहुत बड़ा है और इस प्रकार के भेदभाव पर चर्चा करना जरूरी है।

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1. साउथ इंडिया का योगदान और विकास

साउथ इंडिया, जिसमें तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटका, और केरल शामिल हैं, भारतीय अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाता है। मार्च 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, इन राज्यों का देश की अर्थव्यवस्था में 30% योगदान है, जबकि इन राज्यों की कुल आबादी देश की केवल 20% है। इसके बावजूद, इन राज्यों को उत्तर भारत की तुलना में कम टैक्स रिटर्न मिलते हैं, और यह सवाल उठता है कि आखिर क्यों?

2. टैक्स रिटर्न और पॉपुलेशन आधारित भेदभाव

दक्षिण भारत के नेताओं का आरोप है कि उन्हें टैक्स रिटर्न में भेदभावपूर्ण तरीके से कम पैसे दिए जाते हैं। उनका मानना है कि यह दक्षिण भारत को दबाने की एक साजिश हो सकती है। दरअसल, जब 1951 में भारत सरकार ने एक वित्त आयोग बनाया था, तो इसका उद्देश्य यह तय करना था कि केंद्र और राज्यों के बीच टैक्स कलेक्शन कैसे बांटा जाए। इसके लिए 6 फैक्टर पर विचार किया गया—क्षेत्रफल, भूगोल, प्रदर्शन, वन क्षेत्र, टैक्स प्रयास, जनसंख्या और आय वितरण।

3. आय वितरण और पॉपुलेशन का प्रभाव

इन 6 फैक्टरों में आय वितरण और जनसंख्या विशेष रूप से साउथ इंडिया के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हुए। आय वितरण का मतलब है कि राज्य की औसत प्रति व्यक्ति आय और देश की औसत प्रति व्यक्ति आय के बीच का अंतर। अगर किसी राज्य की आय कम है, तो उस राज्य को ज्यादा टैक्स रिटर्न मिलता है। जबकि दक्षिण भारत के राज्य उच्चतम योगदान देते हैं, फिर भी उन्हें उतना रिटर्न नहीं मिलता।

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साथ ही, अगर किसी राज्य की जनसंख्या ज्यादा है, तो उस राज्य को ज्यादा फंड मिलता है। लेकिन यहाँ भी साउथ इंडिया को समस्या है। 2011 के जनगणना के आधार पर सरकार को फंड का वितरण करना पड़ा, जबकि दक्षिण भारत ने अपनी जनसंख्या को नियंत्रित करने में काफी सफलता हासिल की थी। 1971 के बाद से साउथ इंडिया की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आई थी, जबकि उत्तर भारत में जनसंख्या तेजी से बढ़ी।

4. पॉलिटिकल पावर और संसदीय सीटों का संकट

एक और बड़ा मुद्दा यह है कि 1971 की जनगणना के आधार पर संसद में सीटों का वितरण किया गया था। अगर भविष्य में 2011 की जनगणना के आंकड़े लागू किए जाते हैं, तो उत्तर भारत को ज्यादा सीटें मिल सकती हैं, जिससे दक्षिण भारत की पॉलिटिकल पावर कम हो सकती है। इससे राज्य के विकास और प्रतिनिधित्व पर असर पड़ सकता है।

5. क्या है इसका समाधान?

इस असमानता को समझने के लिए हमें भारतीय इतिहास में झांकना होगा। 1961 और 1971 के बीच भारत में तेजी से जनसंख्या वृद्धि हुई थी, और इसके साथ-साथ कई आर्थिक समस्याएँ भी आईं। इंदिरा गांधी सरकार ने इस वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए कई कदम उठाए, जिनमें नसबंदी कार्यक्रम भी शामिल था। इसके बाद कई साउथ भारतीय राज्यों ने अपनी जनसंख्या को नियंत्रित करने में सफलता पाई, लेकिन उत्तर भारत में यह प्रक्रिया धीमी रही।

जब 15वें वित्त आयोग ने 2011 के आंकड़ों के आधार पर फंड वितरण की योजना बनाई, तो साउथ इंडिया ने इसका विरोध किया, क्योंकि इसके कारण उन्हें 24,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा था, जबकि उत्तर भारत को 35,000 करोड़ रुपये का फायदा हो रहा था।

6. साउथ इंडिया की परेशानियाँ और समाधान

साउथ इंडिया की समस्याएँ केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि राजनीतिक भी हैं। यदि 2011 के आंकड़ों के आधार पर सीटों का वितरण होता है, तो यह राज्य की राजनीतिक ताकत को प्रभावित कर सकता है। तमिलनाडु में लोकसभा की सीटों में पहले ही कमी आई है, और इसे लेकर कई चर्चाएँ हो चुकी हैं। यही कारण है कि साउथ इंडिया को लगता है कि उन्हें नॉर्थ इंडिया के मुकाबले कम अधिकार और कम फंड मिलते हैं।

7. क्या ये साजिश है?

इस सवाल का उत्तर साफ नहीं है। यह कहना कि यह सिर्फ साजिश है, पूरी तरह से सही नहीं होगा। हाँ, दक्षिण भारत के राज्य अपनी स्थिति में सुधार के लिए और अधिक ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन सच यह है कि वित्त आयोग का उद्देश्य हर राज्य की जरूरतों और विकास के हिसाब से उचित वितरण करना है, और यह एक जटिल प्रक्रिया है।

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8. निष्कर्ष

साउथ और नॉर्थ भारत के बीच असमानता कोई नई बात नहीं है, और इसके कई कारण हैं—आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक। हालांकि, वित्त आयोग का उद्देश्य हर राज्य के विकास के लिए उचित संसाधन प्रदान करना है, और इसके लिए प्रत्येक राज्य की जरूरतों का सही आकलन करना जरूरी है। क्या दक्षिण भारत को मिले फंड सही हैं, या फिर कुछ सुधार की आवश्यकता है, यह एक बड़ा सवाल है।

लेकिन इस समस्या का हल सिर्फ तब संभव है जब हम पूरी प्रक्रिया को समझकर और सही तरीके से काम करें, ताकि हर राज्य को समान विकास का मौका मिल सके।

अस्वीकरण:

इस लेख में व्यक्त की गई विचार और राय केवल लेखक के हैं और किसी भी सरकारी, संगठनात्मक या संस्थागत नीति या दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। यह सामग्री केवल सूचना के उद्देश्य से है, और दी गई जानकारी की सटीकता को सुनिश्चित करने के लिए प्रयास किए गए हैं, लेकिन लेखक इसकी पूर्णता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं देता। पाठकों को सलाह दी जाती है कि वे इस जानकारी को स्वतंत्र रूप से सत्यापित करें, इससे किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने या निर्णय लेने से पहले।

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