पुणे पोर्श क्रैश: एक साल बाद भी ज़ख्म हरे हैं, इंसाफ अब भी गुम है

हर साल हम कोई न कोई घटना याद करते हैं, लेकिन कुछ घटनाएं सिर्फ याद नहीं, एक टीस बनकर दिल में चुभ जाती हैं। पुणे पोर्श हादसा भी ऐसी ही एक घटना है, जिसने दो मासूम जिंदगियों को लील लिया और पूरे सिस्टम की पोल खोलकर रख दी। 18 मई 2024 को हुए इस हादसे को एक साल हो चुका है, लेकिन आज भी इंसाफ नहीं मिला है।

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हादसे की शुरुआत: जब दो सपने रौंद दिए गए

18 मई की उस रात दो मेहनती IT इंजीनियर्स अश्विनी और अनीश बाइक से घर लौट रहे थे, जब एक नशे में धुत 17 साल का लड़का—वेदांत अग्रवाल—बिना नंबर प्लेट वाली पोर्श कार से उन्हें 150 किमी/घंटा की रफ्तार से टक्कर मार देता है। मौके पर ही दोनों की मौत हो जाती है।


अमीरी का कवच: कैसे सिस्टम ने आरोपी को बचाया

घटना के बाद जो हुआ, वो शायद भारत के सिस्टम की सबसे शर्मनाक तस्वीर पेश करता है। आरोपी को तुरंत जमानत मिल गई, और उसे दी गई ‘सजा’ ने पूरे देश को झकझोर दिया—300 शब्दों का निबंध, ट्रैफिक नियमों की क्लास, और मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग। जैसे किसी बच्चे ने कोई छोटा-मोटा शरारत कर दी हो।


सिस्टम की साजिश: जब सबूतों से खेला गया

सबसे डरावनी बात ये रही कि इस हादसे को दबाने के लिए एक संगठित कोशिश की गई। वेदांत का ब्लड सैंपल बदल दिया गया। डॉक्टर्स, फॉरेंसिक एक्सपर्ट्स, मेडिकल इंटर्न्स तक को पैसे और दबाव में लाकर सच को छुपाने को कहा गया। ड्राइवर को बलि का बकरा बनाने की कोशिश हुई। विधायक से लेकर पुलिस तक सब वेदांत के साथ खड़े हो गए।

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अदालत और कानून: न्याय या मज़ाक?

जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने वेदांत को “बच्चा” मानते हुए जमानत दे दी। दलील दी गई कि उसका भविष्य बचाना जरूरी है। लेकिन किसी ने नहीं पूछा कि अश्विनी और अनीश का क्या? उनका भविष्य? उनके सपने? कोर्ट ने कहा ये “दुर्घटना” थी, हत्या नहीं। क्या 150 किमी/घंटे की रफ्तार, शराब के नशे में, बिना नंबर प्लेट और बिना लाइसेंस गाड़ी चलाना हादसा है?


इंसाफ की कीमत: गरीबों की ज़िंदगी कितनी सस्ती?

अश्विनी और अनीश के माता-पिता आज भी हर दिन अपने बच्चों की तस्वीरों से बातें करते हैं। लेकिन सवाल पूछते हैं—क्या हमारे बच्चे गरीब थे, इसलिए उन्हें इंसाफ नहीं मिला? डॉक्टरों ने गद्दारी की, पुलिस ने साथ नहीं दिया, नेताओं ने नजरअंदाज़ कर दिया। और अंत में अदालत ने 300 शब्दों का निबंध लिखवाकर एक अमीर बच्चे को फिर से समाज में भेज दिया।


समाज की खामोशी: हम कब तक भूलते रहेंगे?

इस देश की सबसे बड़ी समस्या यही है कि हम जल्दी भूल जाते हैं। उस वक्त मोमबत्तियां जलाई गईं, सोशल मीडिया पर हैशटैग चले, लोग गुस्से में आए। लेकिन फिर सब शांत हो गया। एक साल बाद वेदांत खुलेआम घूम रहा है, और अश्विनी-अनीश की यादें सिर्फ उनके परिवार की आंखों में बाकी हैं।


सच्चाई का आईना: क्या कानून सबके लिए बराबर है?

अमेरिका में अगर 14 साल का बच्चा भी हत्या करता है, तो उम्रकैद की सज़ा मिलती है। लेकिन भारत में 17 साल 8 महीने का लड़का, जो दो जिंदगियों को खत्म करता है, उसे इंसाफ की बजाय सहानुभूति मिलती है। यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या हमारा कानून अमीरों का गुलाम बन चुका है?


निष्कर्ष: अब भी वक़्त है जागने का

पुणे पोर्श हादसा एक चेतावनी है, एक आईना है जिसमें हमारा सिस्टम, हमारा समाज, और हम खुद को देख सकते हैं। सवाल सिर्फ अश्विनी और अनीश का नहीं है, सवाल इंसाफ का है। सवाल उस सिस्टम का है जो अमीरों को बचाता है और गरीबों को कुचल देता है। अब भी वक़्त है जागने का। अगर आज नहीं जगे, तो कल कोई और वेदांत, किसी और अश्विनी-अनीश की जिंदगी को लील लेगा—और हम फिर भूल जाएंगे।


याद रखिए, अश्विनी और अनीश आंकड़े नहीं थे, वो भी किसी के बच्चे थे। उनकी मौत पर चुप रहना इंसाफ की मौत है।

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